किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
पहुँच गई है कहाँ जाने बात चलते हुए
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ख़ाक-ज़ादा हूँ मगर ता-ब फ़लक जाता है
मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता
वफ़ा का शौक़ ये किस इंतिहा में ले आया
भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए
कितने गुलशन कि सजे थे मिरे इक़रार के नाम
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
ऐसे रखती है हमें तेरी मोहब्बत ज़िंदा
वो एक ख़्वाब कि आँखों में जगमगा रहा है
वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ़ गीले से
इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है