चले तो पाँव के नीचे कुचल गई कोई शय
नशे की झोंक में देखा नहीं कि दुनिया है
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अब कहाँ ले के छुपें उर्यां बदन और तन जला
हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का मौसम निकल गया
इस धूप से क्या गिला है मुझ को
हयात में भी अजल का समाँ दिखाई दे
सूरज का शहर
हवस-ए-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर लिए बैठे हैं
रुत्बा-ए-दर्द को जब अपना हुनर पहुँचेगा
शहर-ए-अना में
याद उस की है कुछ ऐसी कि बिसरती भी नहीं
दश्त-ए-ग़ुर्बत है तो वो क्यूँ हैं ख़फ़ा हम से बहुत
बे-सर-ओ-सामाँ कुछ अपनी तब्अ से हैं घर में हम