शाम रखती है बहुत दर्द से बेताब मुझे
शाम रखती है बहुत दर्द से बेताब मुझे
ले के छुप जा कहीं ऐ आरज़ू-ए-ख़्वाब मुझे
अब मैं इक मौज-ए-शब-ए-तार हूँ साहिल साहिल
राह में छोड़ गया है मिरा महताब मुझे
अब तक इक शम्-ए-सियह-पोश हूँ सहरा सहरा
तुझ से छुट कर न मिली रहगुज़र-ए-ख़्वाब मुझे
साहिल-ए-आब-ओ-सराब एक है मंज़िल मंज़िल
तिश्नगी करती है सैराब न ग़र्क़ाब मुझे
मैं भी सहरा हूँ मुझे संग समझने वालो
अपनी आवाज़ से करते चलो सैराब मुझे
मैं भी दरिया हूँ हर इक सम्त रवाँ हूँ कब से
मेरा साहिल भी नहीं मंज़िल-ए-पायाब मुझे
अब मुझे ढूँढ न आग़ोश-ए-गुरेज़ाँ हर-सू
ले उड़ी ख़ाक बहा ले गया सैलाब मुझे
शाम पूछे तो न कहना कि मैं दुनिया में नहीं
ले के फिर आएगा इस घर में मिरा ख़्वाब मुझे
(665) Peoples Rate This