हवस-ए-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर लिए बैठे हैं
हवस-ए-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर लिए बैठे हैं
आयत-ए-शौक़ की तफ़्सीर लिए बैठे हैं
आसमाँ साथ चला घर की ज़मीं दूर हुई
तुझ से दूर इक रह-ए-दिल-गीर लिए बैठे हैं
वज्ह-ए-ताज़ीर हुई बे-वतनी भी जब से
अम्बरीं हाथों की तहरीर लिए बैठे हैं
आप से आप वो खुलती हुई ज़ुल्फ़ें तेरी
अब इसी सोग की तस्वीर लिए बैठे हैं
हाए क्या अह्द-ए-जवानी-ओ-मुहब्बत है कि हम
इक न इक मरने की तदबीर लिए बैठे हैं
ज़िंदगी बे-दर-ओ-दीवार मकाँ है कोई
कब से इक हसरत-ए-तामीर लिए बैठे हैं
कोई अपनों ही में क़ातिल है तो हम चुप से 'शहाब'
ज़ख़्म खाए हुए शमशीर लिए बैठे हैं
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