चमन में देखते ही पड़ गई कुछ ओस ग़ुंचों पर
तिरे बुस्ताँ पे आलम है अजब शबनम के महरम का
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जूँ मौज हाथ मारिए क्या बहर-ए-इश्क़ में
वस्ल की रात हम-नशीं क्यूँकि कटी न पूछ कुछ
जिस्म उस के ग़म में ज़र्द-अज़-ना-तवानी हो गया
इक पल में झड़ी अब्र-ए-तुनक-माया की शेख़ी
गले में तू ने वहाँ मोतियों का पहना हार
दिल-ए-पुर-आबला लाया हूँ दिखाने तुम को
कर के आज़ाद हर इक शहपर-ए-बुलबुल कतरा
ख़ाल-ए-रुख़ उस ने दिखाया न दोबारा अपना
हम फड़क कर तोड़ते सारी क़फ़स की तीलियाँ
हवा पर है ये बुनियाद-ए-मुसाफ़िर ख़ाना-ए-हस्ती
सुब्ह-ए-गुलशन में हो गर वो गुल-ए-ख़ंदाँ पैदा
ये निगल जाएगी इक दिन तिरी चौड़ाई चर्ख़