सदा है इस आह-ओ-चश्म-ए-तर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
सदा है इस आह-ओ-चश्म-ए-तर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
निकल के देखो तुम अपने घर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
वो शोला-रू है सवार-ए-तौसन और उस का तौसन अरक़-फ़िशाँ है
अजब है इक सैर दोपहर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
हँसे है कोठे पे मेरा यूसुफ़ मैं ज़ेर-ए-दीवार रो रहा हूँ
अज़ीज़ो देखो मिरी नज़र से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
पतंग क्यूँकर न होवे हैराँ कि शम्अ शब को दिखा रही है
ब-चश्म-ए-गिर्यां ओ ताज-ए-ज़र से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
नहा के अफ़्शाँ चुनो जबीं पर निचोड़ो बालों को ब'अद इस के
दिखाओ आशिक़ को इस हुनर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
कहाँ है जूँ शोला शाख़ पर गुल किधर है फ़स्ल-ए-बहार शबनम
तिरे है एजाज़-ए-तुर्फ़ा-तर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
करो न दरिया पे मय-कशी तुम उधर को आओ तो मैं दिखाऊँ
सरिश्क-ए-हर-नाला-ओ-जिगर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
किधर को जाऊँ निकल के या-रब कि गर्म-ओ-सर्द-ए-ज़माना मुझ को
दिखाए है शाम तक सहर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
वो तेग़ खींचे हुए है सर पर मैं सर झुकाए हूँ अश्क-ए-रेजाँ
दिखाऊँ ऐ दिल तुझे किधर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
ग़ज़ब से चीं-बर-जबीं दिखाए बदन से टपके भी है पसीना
अयाँ है यारो नए हुनर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
'नसीर' लिक्खी है क्या ग़ज़ल ये कि दिल तड़पता है सुन के जिस को
बंधे है यूँ कब किसी बशर से फ़लक पे बिजली ज़मीं पे बाराँ
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