पामाल-ए-राह-ए-इश्क़ हैं ख़िल्क़त की खा ठोकर भी हम
पामाल-ए-राह-ए-इश्क़ हैं ख़िल्क़त की खा ठोकर भी हम
जूँ शीशा नाज़ुक-तर थे क्या सख़्ती में हैं पत्थर भी हम
आईना दिल का साफ़ कर कहलाए सैक़ल-गर भी हम
अपने सिवा देखें किसे अंदर भी हम बाहर भी हम
जाँ-बर हो उन से क्यूँकि दिल कहती हैं पलकें यार की
नेज़ा भी हम नावक भी हम बर्छी भी हम ख़ंजर भी हम
अश्कों की दौलत क्यूँ न हो सुल्तान-ए-अक़्लीम-ए-जुनूँ
रखते हैं साथ अपने सदा लड़कों का इक लश्कर भी हम
चुनवा के अबरू मुझ से क्या वो हँस के फ़रमाने लगे
इस तेग़ के दम ले सदा दिखलाएँगे जौहर भी हम
क्या ख़ाक कीजे मय-कशी ऐ साक़ी-ए-गुलफ़ाम आ
गिर्यां हैं मिस्ल-ए-अब्र क्या जूँ बर्क़ हैं मुज़्तर भी हम
कहते हैं वो पाँ-ख़ुर्दा-लब याक़ूत के टुकड़े तो थे
कहलाए लेकिन आज से बर्ग-ए-गुल-ए-अह्मर भी हम
ऐ शोख़ दाँतों का तिरे याँ ये तसव्वुर है बँधा
दिन रात चश्म-ए-तर से याँ बरसाते हैं गौहर भी हम
रखते तो हैं गिर्दाब-ए-यम पर डर है ये ऐ चश्म-ए-तर
गिर्दाब-ए-दरिया की तरह खाते हैं याँ चक्कर भी हम
जो चाहे कर जौर-ओ-जफ़ा पर दिल का मोहर-ए-दाग़ से
रोज़-ए-क़यामत कोसना दिखलाएँगे महज़र भी हम
क़द से 'नसीर' उस के सदा इक शोर-ए-महशर है बपा
छूटे अज़ाब-ए-क़ब्र से क्या ख़ाक याँ मर कर भी हम
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