लश्कर-ए-इश्क़ आ पड़ा है मुल्क-ए-दिल पर टूट टूट
लश्कर-ए-इश्क़ आ पड़ा है मुल्क-ए-दिल पर टूट टूट
कान में आती नहीं है जुज़ सदा-ए-लूट-लूट
मिल नहीं सकता ख़ुदा है इस ख़ुदी के साथ में
ऐ दिल इस क़ैद-ए-ख़ुदी से जल्द-तर अब छूट छूट
बर्क़ साँ हँसना तिरा याद आवे है जिस दम मुझे
अब्र की मानिंद रोता हूँ मैं यकसर फूट फूट
है सदा-ए-ख़ंदा-ए-गुल ख़ार उस के कान में
इस लिए कहता हूँ मैं नाले को अपने खोट खोट
तेरे कुफ़्र-ए-ज़ुल्फ़ की डोरी में अक्सर अहल-ए-दीं
क़ैद-ए-दीं-दारी से भागे हैं निकल कर छूट छूट
कोई काफ़िर ही नहीं जुज़ नफ़्स ख़ुद इस दहर में
पस इसी काफ़िर के सर को रात दिन तू कूट कूट
आ गया बहर-ए-हक़ीक़त का ही गौहर हाथ में
है मिला जब से शह-ए-ख़ादिम से 'आसिम' टूट टूट
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