इस्लाम और कुफ़्र हमारा ही नाम है
इस्लाम और कुफ़्र हमारा ही नाम है
काबा कुनिश्त दोनों में अपना मक़ाम है
ये इश्क़ जिस का शोर है आलम में हैं हमीं
ये हुस्न हम हैं जिस की ये सब धूम धाम है
बन कर सुख़न ज़बान पे आलम की हैं हमीं
मसरूफ़ अपने ज़िक्र में बस हर इक दाम है
देखो जिस आँख में तो हमारा ही नूर है
हर कान में भरा ये हमारा कलाम है
जो कुश्तगान-ए-म'अरका-ए-तेग़-ए-इश्क़ हैं
उन के लिए ये आलम-ए-हस्ती दवाम है
कू-ए-सनम से हम को सरोकार है फ़क़त
वाइज़ तिरी बहिश्त को अपना सलाम है
'आसिम' न छोड़ो दामन-ए-ख़ादिम-सफ़ी कभूँ
मामूर जिस की फ़ैज़ से हर ख़ास-ओ-आम है
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