मेहमाँ है कोई दम का ज़माना शबाब का
मेहमाँ है कोई दम का ज़माना शबाब का
रुकता है कारवाँ भी कहीं इंक़लाब का
दौर-ए-शगुफ़्तनी है ये माना मगर सुनो
मेरी निगाह में है उभरना हबाब का
ए'जाज़-ए-इर्तिक़ा का तमाशा तो देखिए
ज़र्रा भी हम-रिकाब है अब आफ़्ताब का
सुन कर वो माजरा-ए-दिल-ए-ज़ार बोल उठे
ये वाक़िआ' नहीं है करिश्मा है ख़्वाब का
बे-कार 'क़ादरी' उन्हें मैं ने ख़जिल किया
क्या मिल गया जो कह दिया हाल इज़्तिराब का
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