हम ने तो यही मा'रका मारा है सफ़र में
हम ने तो यही मा'रका मारा है सफ़र में
मंज़िल की तरह बैठ गए राहगुज़र में
वो शम-ए-शब-अंजाम की सूरत तो नहीं था
इक पल में शब-ए-निस्फ़ उतर आई है घर में
ऐ नाला-ए-दिल-दोज़ तड़प उट्ठी ख़मोशी
है मर्ग-ए-तमाशा किसी आबाद नगर में
हम ख़ाक के तूदे पे खड़े पूछ रहे हैं
क्या लुत्फ़ मिला तुम को समुंदर के सफ़र में
हम साया-ए-दीवार-ए-शिकस्ता में पड़े थे
ढूँडोगे तो पाओगे हमें साया-ए-दर में
ये मरहला-ए-क़त-ए-तअल्लुक़ तो कठिन था
इक दर्द का दरिया भी है अब दीदा-ए-तर में
इक उम्र के रिश्तों को फ़ना पल में मिली है
हम ढूँडने क्या निकले हैं सदियों के सफ़र में
तारीक-ओ-ख़ुनुक ख़ाक का पैवंद हुए हैं
हम तोल के लाए थे जिन्हें लाल-ओ-गुहर में
यूँ तेरी तरह दूर की मंज़िल के मुसाफ़िर
सब कुछ तो नहीं छोड़ के जाते कभी घर में
(563) Peoples Rate This