टिक के बैठे कहाँ बेज़ार-तबीअत हम से
टिक के बैठे कहाँ बेज़ार-तबीअत हम से
छीन ही ले न कोई आ के ये नेमत हम से
बर-सर-ए-आम ये कहते हैं कि हम झूटे हैं
इस भरे शहर में ज़िंदा है सदाक़त हम से
हम जो मज़लूम हैं इक तरह से ज़ालिम हैं हम
हर सितमगार के बाज़ू में है ताक़त हम से
देख पाए न तो आँखें ही बुझा लीं हम ने
और क्या चाहता है लफ़्ज़-ए-शराफ़त हम से
हर घड़ी सर को हथेली पे सजाए रखना
गरमी-ए-रौनक़-ए-बाज़ार हलाकत हम से
यानी क़ातिल के लिए रहम का जज़्बा मफ़क़ूद
इस से बढ़ कर नहीं हो सकती अदावत हम से
हम ज़मीं-ज़ाद फ़लक-ज़ाद नहीं हैं फिर भी
फ़न की मेराज पे है लफ़्ज़ की हुर्मत हम से
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