जो भी हम से बन पड़ा करते रहे
जो भी हम से बन पड़ा करते रहे
रुत बदलने की दुआ करते रहे
कैसी कैसी चाहतों के थे चराग़
जिन को हम बुर्द-ए-हवा करते रहे
टाँक कर ख़ुश-रंग उम्मीदों के फूल
ख़ुश्क टहनी को हरा करते रहे
रंग ख़ुशबू से अलग होते न थे
लफ़्ज़ मअनी से जुदा करते रहे
जानते थे चापलूसी का हुनर
काम फिर भी दूसरा करते रहे
ख़ौफ़-नगरी के मकीं थे हम 'शफ़ीक़'
फिर भी जज़्बों को सदा करते रहे
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