कश्ती का ज़िम्मेदार फ़क़त नाख़ुदा नहीं
कश्ती में बैठने का सलीक़ा भी चाहिए
Mohsin Naqvi
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Anwar Masood
Habib Jalib
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इश्क़ की इब्तिदा तो जानते हैं
जला वो शम्अ कि आँधी जिसे बुझा न सके
तुझे हम दोपहर की धूप में देखेंगे ऐ ग़ुंचे
ऐसी नींद आई कि फिर मौत को प्यार आ ही गया
आ गया था एक दिन लब पर जफ़ाओं का गिला
यूँ तसव्वुर में बसर रात किया करते थे
मौसम-ए-गुल है न दौर-जाम-ओ-सहबा रह गया
कब से इस दुनिया को सरगर्म-ए-सफ़र पाता हूँ मैं
फ़रेब-ए-रौशनी में आने वालो मैं न कहता था
वो गर्म आँसुओं की रवानी तमाम रात
पर्दा पड़ा हुआ था ख़ुदी ने उठा दिया