फ़रेब-ए-रौशनी में आने वालो मैं न कहता था
कि बिजली आशियाने की निगहबाँ हो नहीं सकती
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जला वो शम्अ कि आँधी जिसे बुझा न सके
कश्ती का ज़िम्मेदार फ़क़त नाख़ुदा नहीं
कब से इस दुनिया को सरगर्म-ए-सफ़र पाता हूँ मैं
कोई टूटी हुई कश्ती का तख़्ता भी अगर है ला
मौसम-ए-गुल है न दौर-जाम-ओ-सहबा रह गया
कमाल-ए-आशिक़ी हर शख़्स को हासिल नहीं होता
ऐसी नींद आई कि फिर मौत को प्यार आ ही गया
तुझे हम दोपहर की धूप में देखेंगे ऐ ग़ुंचे
इश्क़ की इब्तिदा तो जानते हैं
वो गर्म आँसुओं की रवानी तमाम रात
कली पर मुस्कुराहट आज भी मालूम होती है