अजीब रुत थी बरसती हुई घटाएँ थीं
अजीब रुत थी बरसती हुई घटाएँ थीं
ज़मीं ने प्यास की ओढ़ी हुई रिदाएँ थीं
वो कैसा क़ाफ़िला गुज़रा वफ़ा की राहों से
सितम की रेत पे फैली हुई जफ़ाएँ थीं
हिसार-ए-ज़ात से निकला तो आगे सहरा था
बरहना सर थे शजर चीख़ती हवाएँ थीं
वो कौन लोग थे जिन को सफ़र नसीब न था
वगर्ना शहर में क्या क्या कड़ी सज़ाएँ थीं
मैं अपने आप से बछड़ा तो ख़्वाब सूरत था
मिरी तलाश में भटकी हुई सदाएँ थीं
वो एक शख़्स मिला और बिछड़ गया ख़ुद ही
उसी के फ़ैज़ से ज़िंदा मिरी वफ़ाएँ थीं
कोई ख़याल था शायद भटक गया जो 'अक़ील'
मिरे वजूद में शब भर वही निदाएँ थीं
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