सरों पे साया ग़ुबार-ए-सफ़र के जैसा है
सरों पे साया ग़ुबार-ए-सफ़र के जैसा है
कड़कती धूप का शो'ला शजर के जैसा है
इसी में हो के रवाँ गुम हमें भी होना है
ग़ुबार सामने कुछ रहगुज़र के जैसा है
उसे भी सैल-ए-लहू में ही डूब जाना है
दयार-ए-ग़म का मुक़द्दर जिगर के जैसा है
टपक के दाग़ बनेगा नसीब दामन से
वो क़तरा जो कि ब-ज़ाहिर गुहर के जैसा है
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