मौज-दर-मौज सफ़ीनों से है धारा रौशन
मौज-दर-मौज सफ़ीनों से है धारा रौशन
वो जो उतरा तो हुआ शब का किनारा रौशन
क्या पता तेरे मिरे दश्त से लौट आने तक
शहर-ए-इम्काँ का रहेगा भी नज़ारा रौशन
रास्ता कोई ज़मीं पर नज़र आए न सही
आसमाँ पर है मगर एक सितारा रौशन
दश्त-दर-दश्त तिरे नूर के परकाले थे
सम्त-दर-सम्त हुआ मुझ को इशारा रौशन
मैं ने कर दी है सियह आब-ओ-हवा-ए-दुनिया
उस ने आयत की तरह मुझ को उतारा रौशन
आग से भी मुझे महफ़ूज़ वही रक्खेगा
ख़स-ओ-ख़ाशाक में कर दे जो शरारा रौशन
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