कुछ सबील-ए-रिज़्क़ हो फिर कहीं मकाँ भी हो
कुछ सबील-ए-रिज़्क़ हो फिर कहीं मकाँ भी हो
तू अभी यहाँ न आ शहर में अमाँ भी हो
सारी रात ईंट से ईंट शहर की बजे
और बाम-ए-सुब्ह पर ख़ुश-नवा अज़ाँ भी हो
और मेरी ये दुआ भी क़ुबूल हो गई
क़त्ल भी मुझे करे मुझ पे मेहरबाँ भी हो
कुछ तो आफ़त-ए-समावी से ध्यान भी हटे
वो जो रन पड़ा वहाँ रन वही यहाँ भी हो
ख़्वाब ले के शहर में आए हो नए नए
ख़ुश-मिज़ाज हो मिरी तरह ख़ुश-गुमाँ भी हो
मेरी अपनी मर्ज़ी के रंग हों फ़ज़ाओं में
मेरे दस्त में ज़मीं है तो आसमाँ भी हो
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