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ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-बदन शाम-ए-क़ज़ा से रौशन - शफ़क़ सुपुरी कविता - Darsaal

ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-बदन शाम-ए-क़ज़ा से रौशन

ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-बदन शाम-ए-क़ज़ा से रौशन

शम्म'अ-ए-अनफ़ास हो क्यूँ मौज-ए-हवा से रौशन

दश्त में दूर कहीं दूर सियह टीलों पर

हैं मिरे ख़्वाब किसी के कफ़-ए-पा से रौशन

वर्ना किस तरह मिरी राख मुनव्वर होती

कोई चिंगारी तो है उस में हवा से रौशन

किस तरह ख़ुद से जल उट्ठे हैं ये लफ़्ज़ों के चराग़

सफ़्हा-ए-नुत्क़ हुआ किस की नवा से रौशन

जान उस को भी ग़नीमत कि बुज़ुर्गों के तुफ़ैल

रास्ते शहर के हैं अब भी ज़रा से रौशन

मेरी रातों में जला शम्अ मुनाजातों की

मेरी सुब्हों को बना हर्फ़-ए-दुआ से रौशन

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In Hindi By Famous Poet Shafaq Supuri. is written by Shafaq Supuri. Complete Poem in Hindi by Shafaq Supuri. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.