चमन की ख़ाक पे मौज-ए-बला ने रक़्स किया
चमन की ख़ाक पे मौज-ए-बला ने रक़्स किया
लिपट के शो'ला-ए-गुल से सबा ने रक़्स किया
न पूछ दीदा-ए-हैराँ से तू दरून-ए-क़बा
वो चीज़ क्या थी कि बंद-ए-क़बा ने रक़्स किया
खिले गुलाब तो ख़ुशबू ने दफ़ बजाए हैं
ज़मीं तो ख़ैर ज़मीं है फ़ज़ा ने रक़्स किया
इज़ाफ़ा वहशत-ए-दश्त-ए-बला में करने को
हमारे रेत के घर में हवा ने रक़्स किया
दयार-ए-रूह में वो हब्स था कि कुछ मत पूछ
हुआ जो ज़िक्र-ए-मुहम्मद हवा ने रक़्स किया
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