आँखों से मअ'नी-ए-सुख़न-ए-मीर देखते
आँखों से मअ'नी-ए-सुख़न-ए-मीर देखते
हम भी कभी बहार में ज़ंजीर देखते
करते निगाह अपने भी दामन के दाग़ पर
अपना गुनाह देखते तक़्सीर देखते
इतना हमारे तन का लहू ख़ुश्क भी न था
हम ज़ख़्म-ए-दिल को ग़ुंचा-ए-तस्वीर देखते
तेरी गली में ख़ाक हुए हम फिर उस के बाद
क्या फ़ाएदा था ख़ाक की तासीर देखते
अच्छा हुआ जो टूट गया आ के हाथ में
हम आईने में बख़्त के तदबीर देखते
वो ग़म तो था अज़ीज़ पर उस की कहाँ तलक
तख़रीब देखते कभी तामीर देखते
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