ज़बाँ ख़मोश रहे तर्क-ए-मुद्दआ न करे
ज़बाँ ख़मोश रहे तर्क-ए-मुद्दआ न करे
ये इल्तिजा भी नहीं कम कि इल्तिजा न करे
मैं नंग-ए-इश्क़ समझता हूँ ज़िंदगी के लिए
वो दिल जो गर्दिश-ए-दौराँ का सामना न करे
दिला रही है यक़ीन-ए-वफ़ा मुझे वो नज़र
ये बात और है हर एक से वफ़ा न करे
उसे बहार की रंगीनियाँ नसीब न हों
चमन में रह के चमन का जो हक़ अदा न करे
कभी कभी ये बिना-ए-करम भी होती है
जफ़ा-ए-यार से अंदाज़ा-ए-जफ़ा न करे
मुसीबतों से निखरता है इश्क़ ऐ 'शाइर'
दुआ को हाथ भी उठ जाएँ तो दुआ न करे
(604) Peoples Rate This