शक्ल-ए-मिज़्गाँ न ख़ार की सी है
शक्ल-ए-मिज़्गाँ न ख़ार की सी है
हम ने ताड़ी कटार की सी है
हँस के कहते हैं बोसा-बाज़ी में
जीत भी अपनी हार की सी है
इश्क़-ए-मिज़्गाँ में हम ने काँटों से
सोज़नी जिस्म-ए-ज़ार की सी है
उस पे आलम-फ़रेब है दुनिया
फूस बढ़िया मदार की सी है
गर्म-रफ़्तार है वो जाने में
मुझ को आमद नजार की सी है
अपनी आँखों में हर गली तस्वीर
'शाद' पुतली कुम्हार की सी है
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