शगुफ़्ता होते ही मुरझा गई कली अफ़सोस
शगुफ़्ता होते ही मुरझा गई कली अफ़सोस
बहार-ए-बाग़ इधर आई उधर गई अफ़सोस
कि तुम अख़ीर भी कहने न हाल-ए-दिल पाए
ज़बान बंद हुई बात करते ही अफ़सोस
इसी बहाने से मुँह देखते हसीनों का
सफ़ा-ए-दिल न हुई अपनी आरसी अफ़सोस
हुज़ूर-ए-क़ैस पहन कर जुनूँ में क्या जाएँ
क़बा-ए-तन है सरापा नुची खुची अफ़सोस
वबाल-ए-दोश रहा सर भी ना-तवानी से
मिला न कोई हमें तेग़ का धनी अफ़सोस
नज़र से गिर के ये दिल-ए-ग़म हुआ कहीं न मिला
जुनूँ में ख़ाक भी छानी गली गली अफ़सोस
वो कुश्तनी हैं जो माही का भेस भी बदला
हलाल हो गए मछली से भी छुरी अफ़सोस
मज़ार-ए-क़ैस पे आई न एक लैला क्या
किसी ने बात न पूछी ग़रीब की अफ़सोस
बरहनगी का तो मरने पे ग़म नहीं लेकिन
कफ़न खसूट से शर्मिंदगी हुई अफ़सोस
ख़िज़ाँ के हाथ से रोने की जा है ख़ंदा-ए-गुल
बिसूरती है ये हँसती नहीं कली अफ़सोस
किसे सुनाएँ ये हम रेख़्ता ज़बाँ ऐ 'शाद'
जनाब-ए-'मीर' न 'मिर्ज़ा' न 'मुसहफ़ी' अफ़सोस
(501) Peoples Rate This