सदा रंग-ए-मीना चमकता रहा
सदा रंग-ए-मीना चमकता रहा
हमेशा ये सब्ज़ा लहकता रहा
वो कूचा है उल्फ़त का जिस में सदा
ख़िज़र राह भूला भटकता रहा
खुला ये जहाँ पर्दा-ए-दर हिला
जहाँ जो रहा सर पटकता रहा
बता लाग़री से है पर बाल भी
मैं आँखों में सब की खटकता रहा
लबालब यहाँ हो चुका जाम-ए-उम्र
वहाँ साग़र-ए-मय छलकता रहा
बरसती रही क़ब्र पर बेकसी
ग़रीबों का मदफ़न टपकता रहा
रहा नारा-ज़न कू-ए-जानाँ में 'शाद'
गुलिस्ताँ में बुलबुल चहकता रहा
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