पास उस बुत के जो ग़ैर आ के कोई बैठ गया
पास उस बुत के जो ग़ैर आ के कोई बैठ गया
दर्द उट्ठा या मिरे जिस में कि जी बैठ गया
इश्क़-ए-मिज़्गाँ में हज़ारों ने गले कटवाए
ईद-ए-क़ुर्बां में जो वो ले के छुरी बैठ गया
जब रक़ीब उस को बताने लगे अरकान-ए-नमाज़
थाम कर दिल कभी उट्ठा मैं कभी बैठ गया
ऐ जिला-साज़ कभी फिर न सफ़ाई होगी
ज़ंग आईना-ए-दिल में जो ज़रा बैठ गया
दस्त-ओ-पा होते हैं हर वार में लाखों के दो नीम
हाथ चौरंग पे मश्क़ उस ने जो की बैठ गया
चश्मा-ए-गोर वो है उस से न निकला कोई
उस कुएँ में जो गिरा डूबते ही बैठ गया
थाम क्यूँकर नहीं लेते हैं वो दिल देखें तो
तीर-ए-नाला जो निशाने पे कोई बैठ गया
फूट बहता जो ये ऐ 'शाद' तो बेहतर होता
फिर ये उभरेगा फफोला जो अभी बैठ गया
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