मिस्ल-ए-ख़ंजर लेसान रखते हैं
मिस्ल-ए-ख़ंजर लेसान रखते हैं
हाथ भर की ज़बान रखते हैं
हम जले तन दिया-सलाई से
सोख़्ता उस्तुख़्वान रखते हैं
सर-ए-उज़्ज़ा की ख़ैर का'बे में
पाँव वो बे-तकान रखते हैं
वो नज़र-बाज़ हैं कि आँखों में
पुतलियाँ दीद-बान रखते हैं
अलम आहें हैं आबले डंके
हम ये नौबत-निशाँ रखते हैं
ऐ मसीहा जो तुझ से दम मारें
सनम इतनी भी जान रखते हैं
क्या टिकें हम यहाँ ज़माने को
चर्ख़ में आसमान रखते हैं
तंग-दस्ती से मर रहे हैं हज़ार
और ही आन-बान रखते हैं
राज़-ए-दिल सुन न ले कोई ऐ 'शाद'
दर-ओ-दीवार कान रखते हैं
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