ग़ैरों में हिना वो मल रहा है
ग़ैरों में हिना वो मल रहा है
नैरंग-ए-जहाँ बदल रहा है
खटका है ये नश्तर-ए-मिज़्गाँ का
रग रग से जो दम निकल रहा है
वस्फ़-ए-लब-ए-सुर्ख़ लिख रहा हूँ
याक़ूत क़लम उगल रहा है
आबादी-ए-दिल है दाग़-ए-सोजाँ
इस घर में चराग़ जल रहा है
है दिल की तड़प से चश्म-ए-पुर-नम
पारे का कुआँ उबल रहा है
दिल ग़म से न किस तरह हो ठंडा
पंखा दम-ए-सर्द झल रहा है
बेताब है दिल ये ग़म के हाथों
गेंदे की तरह उछल रहा है
शबनम से जोश-ए-मय-कशी है
हर साग़र-ए-गुल खंगल रहा है
दिल आतिश-ए-ग़म से ताओ खा कर
राँगे की तरह पिघल रहा है
है चश्म-ए-सियह में कूदक-ए-अश्क
भँवरे में ये तिफ़्ल पल रहा है
मनका है ढला लवें फिरी हैं
आ जल्द कि दम निकल रहा है
बे-बर्ग-ओ-समर हैं इक हमीं 'शाद'
हर एक निहाल फल रहा है
(620) Peoples Rate This