शहरों में फिरे न सू-ए-सहरा निकले
फ़य्याज़ जो हो वतन के वो क्या निकले
प्यासे आते हैं आप दरिया की तरफ़
प्यासों की तलाश को न दरिया निकले
Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपाए
क्यूँ-कर न रहे ग़म-ए-निहानी तेरा
साक़ी के करम से फ़ैज़ ये जारी है
नज़र की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है
सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियाँ से सुनी
अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम आएगा
ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला
मज़मूँ मेरे दिल में बे-तलब आते हैं
तिरा आस्ताँ जो न मिल सका तिरी रहगुज़र की ज़मीं सही
अब इंतिहा का तिरे ज़िक्र में असर आया
ऐ बुत जफ़ा से अपनी लिया कर वफ़ा का काम
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ