इस सिलसिला-ए-शुहूद को तोड़ दिया
घबरा के अदम की सम्त मुँह मोड़ दिया
कब तक इन सख़्तियों को झेला करती
उकता के मिरी रूह ने जी छोड़ दिया
Javed Akhtar
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हादी हूँ मैं काम है हिदायत मेरा
तेरी ज़ुल्फ़ें ग़ैर अगर सुलझाएगा
लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपाए
ये रात भयानक हिज्र की है काटेंगे बड़े आलाम से हम
अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम आएगा
परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
क्या फ़क़त तालिब-ए-दीदार था मूसा तेरा
जैसे मिरी निगाह ने देखा न हो कभी
तारीफ़ बताऊँ शेर की क्या क्या है
जब किसी ने हाल पूछा रो दिया
जीते जी हम तो ग़म-ए-फ़र्दा की धुन में मर गए
किस बुरी साअत से ख़त ले कर गया