हर तरह की दिल में चाह कर के छोड़े
मशग़ूल-ए-फ़ुग़ाँ-ओ-आह कर के छोड़े
या-रब कभी उस का घर न करना आबाद
जो ग़ैर का घर तबाह कर के छोड़े
Parveen Shakir
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ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
जीते जी हम तो ग़म-ए-फ़र्दा की धुन में मर गए
ग़म-ए-फ़िराक़ मय ओ जाम का ख़याल आया
अख़्लाक़ से जहल इल्म-ओ-फ़न से ग़ाफ़िल
सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियाँ से सुनी
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
मिलेगा ग़ैर भी उन के गले ब-शौक़ ऐ दिल
किस बुरी साअत से ख़त ले कर गया
क्यूँ बात छुपाऊँ रिंद-ए-मय-नोश हूँ मैं
काबा ओ दैर में जल्वा नहीं यकसाँ उन का
निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को