बदले न सदाक़त का निशाँ एक रहे
हर हाल में पिन्हाँ ओ निहाँ एक रहे
इंसाँ है वही जो इस दौर-ए-दो-रंगी से बचे
लाज़िम है कि दिल और ज़बाँ एक रहे
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हक़्क़ा कि वो जादा-ए-वफ़ा से भी फिरा
तिरा आस्ताँ जो न मिल सका तिरी रहगुज़र की ज़मीं सही
इस सिलसिला-ए-शुहूद को तोड़ दिया
हर तरह की दिल में चाह कर के छोड़े
कहते हैं अहल-ए-होश जब अफ़्साना आप का
जो चाहिए देखना न देखा मैं ने
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
जब किसी ने हाल पूछा रो दिया
था अजल का मैं अजल का हो गया
साक़ी के करम से फ़ैज़ ये जारी है
एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
काबा ओ दैर में जल्वा नहीं यकसाँ उन का