ये बज़्म-ए-मय है याँ कोताह-दस्ती में है महरूमी
जो बढ़ कर ख़ुद उठा ले हाथ में मीना उसी का है
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हर तरह की दिल में चाह कर के छोड़े
क्यूँ हो बहाना-जू न क़ज़ा सर से पाँव तक
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
ये रात भयानक हिज्र की है काटेंगे बड़े आलाम से हम
जैसे मिरी निगाह ने देखा न हो कभी
अब इंतिहा का तिरे ज़िक्र में असर आया
जिस वक़्त का डर था वो शबाब आ पहुँचा
अख़्लाक़ से जहल इल्म-ओ-फ़न से ग़ाफ़िल
हादी हूँ मैं काम है हिदायत मेरा
न जाँ-बाज़ों का मजमा था न मुश्ताक़ों का मेला था
किस पे क़ाबू जो तुझी पे नहीं क़ाबू अपना
तारीफ़ बताऊँ शेर की क्या क्या है