तलब करें भी तो क्या शय तलब करें ऐ 'शाद'
हमें तो आप नहीं अपना मुद्दआ मालूम
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निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को
क्यूँ बात छुपाऊँ रिंद-ए-मय-नोश हूँ मैं
हज़ार शुक्र मैं तेरे सिवा किसी का नहीं
क्यूँ-कर न रहे ग़म-ए-निहानी तेरा
साक़ी के करम से फ़ैज़ ये जारी है
अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम आएगा
एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऐ साक़ी
ये बज़्म-ए-मय है याँ कोताह-दोस्ती में है महरूमी
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया