परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
गुज़री है रात शम्अ पे क्या देखते चलें
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ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
जिस दिल में ग़ुबार हो वो दिल साफ़ कहाँ
न जाँ-बाज़ों का मजमा था न मुश्ताक़ों का मेला था
दिल-ए-मुज़्तर से पूछ ऐ रौनक़-ए-बज़्म
जैसे मिरी निगाह ने देखा न हो कभी
एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
था अजल का मैं अजल का हो गया
क्यूँ बात छुपाऊँ रिंद-ए-मय-नोश हूँ मैं
जो चाहिए देखना न देखा मैं ने
इज़हार-ए-मुद्दआ का इरादा था आज कुछ
तमाम उम्र नमक-ख़्वार थे ज़मीं के हम
कुछ कहे जाता था ग़र्क़ अपने ही अफ़्साने में था