निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को
मिरा वो हाथ में साग़र उठा के रह जाना
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ऐ बुत जफ़ा से अपनी लिया कर वफ़ा का काम
हादी हूँ मैं काम है हिदायत मेरा
परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
रौशन है कि शाद-ए-सुख़न-आरा मैं हूँ
तमाम उम्र नमक-ख़्वार थे ज़मीं के हम
तारीफ़ बताऊँ शेर की क्या क्या है
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
क्यूँ बात छुपाऊँ रिंद-ए-मय-नोश हूँ मैं
था अजल का मैं अजल का हो गया
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
तलब करें भी तो क्या शय तलब करें ऐ 'शाद'
हज़ार हैफ़ छुटा साथ हम-नशीनों का