लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपाए
भरी महफ़िल से उठवाया गया हूँ
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जब किसी ने हाल पूछा रो दिया
था अजल का मैं अजल का हो गया
कहते हैं अहल-ए-होश जब अफ़्साना आप का
इस सिलसिला-ए-शुहूद को तोड़ दिया
काबा ओ दैर में जल्वा नहीं यकसाँ उन का
कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
रौशन है कि शाद-ए-सुख़न-आरा मैं हूँ
मज़मूँ मेरे दिल में बे-तलब आते हैं
अब इंतिहा का तिरे ज़िक्र में असर आया
शहरों में फिरे न सू-ए-सहरा निकले
बाज़ अहल-ए-वतन से अब भी दुख पाता हूँ