कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
अभी तक राह में वो कर रहे हैं इंतिज़ार अपना
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बदले न सदाक़त का निशाँ एक रहे
ये बज़्म-ए-मय है याँ कोताह-दोस्ती में है महरूमी
फ़क़त शोर-ए-दिल-ए-पुर-आरज़ू था
क्यूँ-कर न रहे ग़म-ए-निहानी तेरा
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
जीते जी हम तो ग़म-ए-फ़र्दा की धुन में मर गए
तमाम उम्र नमक-ख़्वार थे ज़मीं के हम
हर हाल में आबरू-ए-फ़न लाज़िम है
अर्बाब-ए-क़ुयूद तुझ को क्या देखेंगे
जिसे पाला था इक मुद्दत तक आग़ोश-ए-तमन्ना में
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर