ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
तड़प ऐ दिल तड़पने से ज़रा तस्कीन होती है
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कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऐ साक़ी
क्यूँ हो बहाना-जू न क़ज़ा सर से पाँव तक
इस सिलसिला-ए-शुहूद को तोड़ दिया
ये रात भयानक हिज्र की है काटेंगे बड़े आलाम से हम
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
था अजल का मैं अजल का हो गया
क्यूँ बात छुपाऊँ रिंद-ए-मय-नोश हूँ मैं
परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
ग़म-ए-फ़िराक़ मय ओ जाम का ख़याल आया
साक़ी के करम से फ़ैज़ ये जारी है
तन्हा है चराग़ दूर परवाने हैं
तारीफ़ बताऊँ शेर की क्या क्या है