कहते हैं अहल-ए-होश जब अफ़्साना आप का
हँसता है देख देख के दीवाना आप का
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बाज़ अहल-ए-वतन से अब भी दुख पाता हूँ
हक़्क़ा कि वो जादा-ए-वफ़ा से भी फिरा
ता-उम्र आश्ना न हुआ दिल गुनाह का
जिस दिल में ग़ुबार हो वो दिल साफ़ कहाँ
सियाहकार सियह-रू ख़ता-शिआर आया
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
फ़क़त शोर-ए-दिल-ए-पुर-आरज़ू था
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
भरे हों आँख में आँसू ख़मीदा गर्दन हो
ये वहम किसी तरह न माक़ूल हुआ
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा