जब किसी ने हाल पूछा रो दिया
चश्म-ए-तर तू ने तो मुझ को खो दिया
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परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
रौशन है कि शाद-ए-सुख़न-आरा मैं हूँ
अर्बाब-ए-क़ुयूद तुझ को क्या देखेंगे
जिसे पाला था इक मुद्दत तक आग़ोश-ए-तमन्ना में
तलब करें भी तो क्या शय तलब करें ऐ 'शाद'
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
तेरी ज़ुल्फ़ें ग़ैर अगर सुलझाएगा
हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह
क्यूँ-कर न रहे ग़म-ए-निहानी तेरा
कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
जैसे मिरी निगाह ने देखा न हो कभी