इज़हार-ए-मुद्दआ का इरादा था आज कुछ
तेवर तुम्हारे देख के ख़ामोश हो गया
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परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
मज़मूँ मेरे दिल में बे-तलब आते हैं
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
हादी हूँ मैं काम है हिदायत मेरा
सौ तरह का मेरे लिए सामान क्या
तमाम उम्र नमक-ख़्वार थे ज़मीं के हम
चमन में जा के हम ने ग़ौर से औराक़-ए-गुल देखे
निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को
कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऐ साक़ी
हर तरह की दिल में चाह कर के छोड़े
कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह