हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह
इधर से मुद्दतों आया गया हूँ
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परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
हज़ार शुक्र मैं तेरे सिवा किसी का नहीं
क्यूँ हो बहाना-जू न क़ज़ा सर से पाँव तक
कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
हर हाल में आबरू-ए-फ़न लाज़िम है
अख़्लाक़ से जहल इल्म-ओ-फ़न से ग़ाफ़िल
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
क्यूँ-कर न रहे ग़म-ए-निहानी तेरा
किस पे क़ाबू जो तुझी पे नहीं क़ाबू अपना
अर्बाब-ए-क़ुयूद तुझ को क्या देखेंगे