था अजल का मैं अजल का हो गया
बीच में चौंका तो था फिर सो गया
लुत्फ़ तो ये है कि आप अपना नहीं
जो हुआ तेरा वो तेरा हो गया
काटे खाती है मुझे वीरानगी
कौन इस मदफ़न पे आ कर रो गया
बहर-ए-हस्ती के उमुक़ को क्या बताऊँ
डूब कर मैं 'शाद' इस में खो गया
Faiz Ahmad Faiz
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ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
मज़मूँ मेरे दिल में बे-तलब आते हैं
कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऐ साक़ी
हर हाल में आबरू-ए-फ़न लाज़िम है
तेरी ज़ुल्फ़ें ग़ैर अगर सुलझाएगा
बाज़ अहल-ए-वतन से अब भी दुख पाता हूँ
जिस दिल में ग़ुबार हो वो दिल साफ़ कहाँ
हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह
दिल मोरिद-ए-ईज़ा-ओ-बला होता है
ये वहम किसी तरह न माक़ूल हुआ
क्यूँ-कर न रहे ग़म-ए-निहानी तेरा
अख़्लाक़ से जहल इल्म-ओ-फ़न से ग़ाफ़िल