चलते रहे तो कौन सा अपना कमाल था
ये वो सफ़र था जिस में ठहरना मुहाल था
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दोस्तों का ज़िक्र क्या दुश्मन हैं जब बदले हुए
चलती रहती है तसलसुल से जुनूँ-ख़ेज़ हवा
मंज़र से कभी दिल के वो हटता ही नहीं है
बदल चुकी है हर इक याद अपनी सूरत भी
मिल बैठने के सारे क़रीनों की ख़ैर हो
वो तो आईना-नुमा था मुझ को
बात ईमा-ओ-इशारत से बढ़ी आप ही आप
क़फ़स को ले के उड़ना पड़ रहा है
वहाँ भी ज़हर-ज़बाँ काम कर गया होगा
हमराह मिरे कोई मुसाफ़िर न चला था
सफ़र की आख़िरी मंज़िल के राहबर हम हैं