अब मुझ को रुख़्सत होना है अब मेरा हार-सिंघार करो
क्यूँ देर लगाती हो सखियो जल्दी से मुझे तय्यार करो
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ये सिलसिले भी रिफ़ाक़त के कुछ अजीब से हैं
आईन-ए-वफ़ा इतना भी सादा नहीं होता
बदल चुकी है हर इक याद अपनी सूरत भी
अब मुझ को रुख़्सत होना है कुछ मेरा हार-सिंघार करो
चलते रहे तो कौन सा अपना कमाल था
अक्सर अपने दर-पए-आज़ार हो जाते हैं हम
दोस्तों का ज़िक्र क्या दुश्मन हैं जब बदले हुए
दूर हुआ इबहाम कहानी ख़त्म हुई
हम-नशीनो कुछ नहीं रक्खा यहाँ पर कुछ नहीं
तन्हा खड़े हैं हम सर-ए-बाज़ार क्या करें
बे-वजह तहफ़्फ़ुज़ की ज़रूरत भी नहीं है
हाथ न आई दुनिया भी और इश्क़ में भी गुमनाम रहे