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गए बरस की यही बात यादगार रही - शबनम शकील कविता - Darsaal

गए बरस की यही बात यादगार रही

गए बरस की यही बात यादगार रही

फ़ज़ा ग़मों के लिए ख़ूब साज़गार रही

अगरचे फ़ैसला हर बार अपने हक़ में हुआ

सज़ा-ए-जुर्म बहर-हाल बरक़रार रही

बदलती देखीं वफ़ादारियाँ भी वक़्त के साथ

वफ़ा जहाँ के लिए एक कारोबार रही

अब अपनी ज़ात से भी ए'तिमाद उन का उठा

वो जिन की बात कभी हर्फ़-ए-ए'तिबार रही

ख़बर थी गो उसे अब मोजज़े नहीं होते

हयात फिर भी मगर महव-ए-इंतिज़ार रही

न कोई हर्फ़-ए-मलामत न कोई कलमा-ए-ख़ैर

ये ज़ीस्त अब न किसी की भी ज़ेर-ए-बार रही

ये और बात कि दिल ग़म में ख़ुद कफ़ील हुआ

मगर वो आँख मिरे ग़म में अश्क-बार रही

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In Hindi By Famous Poet Shabnam Shakeel. is written by Shabnam Shakeel. Complete Poem in Hindi by Shabnam Shakeel. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.