मैं ने किस शौक़ से इक उम्र ग़ज़ल-ख़्वानी की
मैं ने किस शौक़ से इक उम्र ग़ज़ल-ख़्वानी की
कितनी गहरी हैं लकीरें मेरी पेशानी की
वक़्त है मेरे तआक़ुब में छुपा ले मुझ को
जू-ए-कम-आब क़सम तुझ को तिरे पानी की
यूँ गुज़रती है रग ओ पय से तिरी याद की लहर
जैसे ज़ंजीर छनक उठती है ज़िंदानी की
अजनबी से नज़र आए तिरे चेहरे के नुक़ूश
जब तिरे हुस्न पे मैं ने नज़र-ए-सानी की
मुझ से कहता है कोई आप परेशान न हों
मिरी ज़ुल्फ़ों को तो आदत है परेशानी की
ज़िंदगी क्या है तिलिस्मात की वादी का सफ़र
फिर भी फ़ुर्सत नहीं मिलती मुझे हैरानी की
वो भी थे ज़िक्र भी था रंग-ए-ग़ज़ल का 'शबनम'
फिर तो मैं ने सर-ए-महफ़िल वो गुल-अफ़्शानी की
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