नज़्म
सच से
घर नहीं बनते
मेरी लकड़ी सच थी
घर नहीं कश्ती बनी
सच की कश्ती को खेती हुई
मेरी रूह
न जाने किन किन पानियों से गुज़र रही है
पानी की शक्ल मुक़र्रर नहीं
मरने का वक़्त मुक़र्रर होता है
कश्ती को मेरी रूह से ज़ियादा
पानी मुआफ़िक़ है
देव-दार की उम्र पानी में बढ़ जाती है
और दुनिया में
ढोंग न रचाने वाले की उम्र
घट जाती है
मौत के साहिल पे उतरने के लिए
मैं सच की कश्ती में डोल रही हूँ
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